Tuesday, January 31, 2023

शुगर का घरेलू इलाज...


फ़िरदौस ख़ान
शुगर एक ऐसा मर्ज़ है, जिससे व्यक्ति की ज़िन्दगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हो जाती है. वह अपनी पसंद की मिठाइयां, फल, आलू, अरबी और कई तरह की दूसरी चीज़ें नहीं खा पाता. इसके साथ ही उसे तरह-तरह की दवाएं भी खानी पड़ती हैं. दवा कोई भी नहीं खाना चाहता, जिसे मजबूरन खानी पड़ती हैं, इससे उसका ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है. इससे व्यक्ति और ज़्यादा परेशान हो जाता है. पिछले कई दिनों से हम शुगर के रूहानी और घरेलू इलाज के बारे में अध्ययन कर रहे हैं. हमने शुगर के कई मरीज़ों से बात की. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो महंगे से महंगा इलाज कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. कई ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने घरेलू इलाज किया और बेहतर महसूस कर रहे हैं.शुगर के मरीज़ डॊक्टरों से दवा तो लेते ही हैं, लेकिन हम आपको ऐसे इलाज के बारे में बताएंगे, जिससे मरीज़ को दवा की ज़रूरत ही नहीं रहती.

पहला इलाज है जामुन
जी हां, जामुन शुगर का सबसे बेहतरीन इलाज है. अमूमन सभी पद्धतियों की शुगर की दवाएं जामुन से बनाई जाती हैं. बरसात के मौसम में जामुन ख़ूब आती हैं. इस मौसम में दरख़्त जामुन से लदे रहते हैं. जब तक मौसम रहे, शुगर के मरीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जामुन खाएं. साथ ही जामुन की गुठलियों को धोकर, सुखाकर रख लें, क्योंकि जब जामुन का मौसम न रहे, तब इन गुठलियों को पीसकर सुबह ख़ाली पेट एक छोटा चम्मच इसका चूर्ण फांक लें. जामुन की चार-पांच पत्तियां सुबह और शाम खाने से भी शुगर कंट्रोल में रहती है. जामुन के पत्ते सालभर आसानी से मिल जाते हैं. जिन लोगों के घरों के आसपास जामुन के पेड़ न हों, तो वे जामुन के पत्ते मंगा कर उन्हें धोकर सुखा लें. फिर इन्हें पीस लें और इस्तेमाल करें.

दूसरा इलाज है नीम 
नीम की सात-आठ हरी मुलायम पत्तियां सुबह ख़ाली पेट चबाने से शुगर कंट्रोल में रहती है. ध्यान रहे कि नीम की पत्तियां खाने के दस-पंद्रह मिनट बाद नाश्ता ज़रूर कर लें. नीम की पत्तियां आसानी से मिल जाती हैं.

तीसरा इलाज है अमरूद
रात में अमरूद के दो-तीन पत्तों को धोकर कूट लें. फिर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन में भिगोकर रख दें.ध्यान रहे कि बर्तन धातु का न हो. सुबह ख़ाली पेट इसे पीने से शुगर कंट्रोल में रहती है.

ये तीनों इलाज ऐसे हैं, जो आसानी से मुहैया हैं. शुगर का कोई भी मरीज़ इन्हें अपनाकर राहत पा सकता है. इन तीनों में से कोई भी इलाज करने के एक माह के बाद शुगर का टेस्ट करा लेने से मालूम हो जाएगा कि इससे कितना फ़ायदा हुआ है.
इनके अलावा शुगर के और भी घरेलू इलाज हैं. उनके बारे में फिर लिखेंगे.

Wednesday, December 7, 2022

भाजपा का विकल्प


फ़िरदौस ख़ान
दिल्ली में नगर निगम चुनाव से पहले हमने बहुत से लोगों ख़ासकर मुस्लिम कांग्रेसियों से बात की थी. कांग्रेसी इसलिए कि कभी ये सब कांग्रेस के कट्टर समर्थक हुआ करते थे. कांग्रेस का जुलूस निकलता, तो ये लोग जुलूस पर गुलाब के फूल बरसाते थे.   
अमूमन इनमें से सबने यही कहा था कि वे झाड़ू को वोट देंगे. वजह पूछने पर यही जवाब मिला कि केजरीवाल ने बहुत काम किया है.
क्या काम क्या है? इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था.  
आज आम आदमी पार्टी के जीते हुए पार्षदों का जुलूस पूरे हर्षोल्लास से निकला, तो इन लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. हालत यह थी कि लोग एक-दूसरे को फ़ोन पर मुबारकबाद दे रहे थे. गलियों में बच्चे भी ख़ुशी से चीख़-चीख़कर कह रहे थे- "केजरीवाल जीत गया." 
अब केजरीवाल को लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, क्योंकि 
अवाम को भाजपा का विकल्प मिल गया है.
 कट्टर कांग्रेसी कैसे 'आप' समर्थक हो गए? क्या इस पर कांग्रेस ग़ौर करेगी?  
#आमआदमीपार्टी
#केजरीवाल  
#कांग्रेस
#भाजपा  
#दिल्लीनगरनिगम 
#एमसीडी

तस्वीर गूगल से साभार 

Saturday, October 22, 2022

झाड़ू की सींकों का घर...

 


जी, हां ये बात बिल्कुल सच है. जो चीज़ हमारे लिए बेकार है, उससे किसी का आशियाना भी बन सकता है.    

बहुत साल पहले की बात है. अक्टूबर का ही महीना था. हमने देखा कि कई कबूतर आंगन में सुखाने के लिए रखी झाड़ू की सींकें निकाल रहे हैं. हर कबूतर बड़ी मशक़्क़त से एक सींक खींचता और उड़ जाता. हमने सोचा कि देखें कि आख़िर ये कबूतर झाड़ू की सीकें लेकर कहां जा रहे हैं. हमने देखा कि एक कबूतर सामने के घर के छज्जे पर रखे एक कनस्तर में सींकें इकट्ठी कर रहा है और दो कबूतर दाईं तरफ़ के घर की दीवार में बने रौशनदान में एक घोंसला बना रहे हैं. कबूतरों के उड़ने के बाद हमने झाड़ू को खोल कर उसकी सींकें बिखेर दीं, ताकि वे आसानी से अपने नन्हे घर के लिए सींकें ले जा सकें. अब हमने इसे अपनी आदत में शुमार कर लिया. पुरानी छोटी झाड़ुओं को फेंकने की बजाय संभाल कर रख देते हैं. जब इस मौसम में कबूतर झाड़ू की सींके खींचने लगते हैं, तो हमें पता चल जाता है कि ये अपना घोंसला बनाने वाले हैं. गुज़श्ता दो दिनों में कबूतर हमारी दो झाड़ुओं की सींकें लेकर जा चुके हैं. 
हम चमेली व दीगर पौधों की सूखी टहनियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके पानी के कूंडों के पास बिखेर देते हैं, ताकि पानी पीने के लिए आने वाले परिन्दों इन्हें लेकर जा सकें. 

आपसे ग़ुज़ारिश है कि अगर आपके आसपास भी परिन्दे हैं, तो आप भी अपनी पुरानी झाड़ुओं की सींकें कबूतरों के लिए रख दें, ताकि इनसे उनके नन्हे आशियाने बन सकें.
फ़िरदौस ख़ान

Friday, October 21, 2022

दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत इंसान

 

राहुल गांधी की ये तस्वीर ख़ूब वायरल हो रही है. इस तस्वीर को लेकर राहुल गांधी की उम्र, उनके चेहरे की झुर्रियों, उनकी सफ़ेद होती दाढ़ी और सफ़ेद बालों पर ख़ूब तंज़ किए जा रहे हैं.

ये बरहक़ है कि जो पैदा हुआ है वह उम्र के मुख़्तलिफ़ मरहलों से गुज़रता है. पहले वह बच्चा होता है, फिर वह अपनी जवानी को पहुंचता है और इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता ज़ईफ़ी की तरफ़ बढ़ता है. 
ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो बूढ़े होते हैं, क्योंकि मौत के ज़ालिम पंजे किसी को पैदा होते ही अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, तो किसी को बचपन में उनके अपनों से छीन लेते हैं. कितने ही लोग भरी जवानी में मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. 

क्या बूढ़ा होना कोई गुनाह है? क्या चेहरे की झुर्रियां शर्म की बात है? क्या दाढ़ी सफ़ेद होना नदामत की बात है?
ख़ूबसूरत लोग हमेशा ख़ूबसूरत नहीं रहते, लेकिन अच्छे लोग हमेशा ख़ूबसूरत होते हैं. हमारे नज़दीक राहुल गांधी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत इंसान हैं और हमेशा रहेंगे.
फ़िरदौस ख़ान  

Wednesday, October 19, 2022

परम्परा क़ायम रहे, रोज़गार का ज़रिया बना रहे...


पारम्परिक चीज़ें रोज़गार से जुड़ी होती हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी होती हैं. इसलिए दिवाली पर अपने घर-आंगन को रौशन करने के लिए मिट्टी के दिये ज़रूर ख़रीदें, ताकि दूसरों के घरों के चूल्हे जलते रहें. 
अगर आपको लगता है कि सरसों का तेल बहुत महंगा हो गया है, तो बिजली भी कोई सस्ती नहीं है. 
जो ख़ुशी चन्द दिये रौशन करने से मिलती है, वह बिजली की झालरों में लगे हज़ारों बल्बों से भी नहीं मिल पाती. हम भी मिट्टी के दिये ख़रीदते हैं, ताकि ये परम्परा क़ायम रहे और रोज़गार का ज़रिया बना रहे.
फ़िरदौस ख़ान  

Wednesday, September 14, 2022

अपनी भाषा हिन्दी पर गर्व करें

फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेज़ी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेज़ी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।
अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।
देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर  हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।
देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।
संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।
भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।
संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।
हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। 
रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।
एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।
अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?
रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।
तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।


Saturday, August 13, 2022

ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझपे दिल क़ुर्बान


फ़िरदौस ख़ान
यह ख़ुशनुमा अहसास है कि हमारा देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहा है. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी यानी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. जन्म स्थान या अपने देश को मातृभूमि कहा जाता है. भारत और नेपाल में भूमि को मां के रूप में माना जाता है. यूरोपीय देशों में मातृभूमि को पितृ भूमि कहते हैं. दुनिया के कई देशों में मातृ भूमि को गृह भूमि भी कहा जाता है. इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों और पशुओं को भी अपनी जगह से प्यार होता है, फिर इंसान की तो बात ही क्या है. हम ख़ुशनसीब हैं कि आज हम आज़ाद देश में रह रहे हैं. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत क़ुर्बानियां दी हैं. उस वक़्त देश प्रेम के गीतों ने लोगों में जोश भरने का काम किया. बच्चों से लेकर नौजवानों, महिलाओं और बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पर देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर गीत किसी मंत्र की तरह रहते थे. क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ने तो अवाम में फ़िरंगियों की बंदूक़ों और तोपों का सामने करने की हिम्मत पैदा कर दी थी.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...
देश प्रेम के गीतों का ज़िक्र मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के बिना अधूरा है. उनके गीत सारे जहां से अच्छा के बग़ैर हमारा कोई भी राष्ट्रीय पर्व पूरा नहीं होता. हर मौक़े पर यह गीत गाया और बजाया जाता है. देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर यह गीत दिलों में जोश भर देता है.
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशां हमारा...
जयशंकर प्रसाद का गीत यह अरुण देश हमारा, भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का बहुत ही मनोहरी तरीक़े से चित्रण करता है.
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जा पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा...
हिन्दी फ़िल्मों में भी देश प्रेम के गीतों ने लोगों में राष्ट्र प्रेम की गंगा प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज़ादी से पहले इन गीतों ने हिन्दुस्तानियों में ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा पैदा किया और आज़ादी के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करने में अहम किरदार अदा किया है. फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो देश प्रेम के गीत रचने में कवि प्रदीप आगे रहे. उन्होंने 1962 की भारत-चीन जंग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी’ गीत लिखा. लता मंगेशकर द्वारा गाये इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में 26 जनवरी, 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीधा प्रसारण किया गया था. गीत सुनकर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आई थीं. साल 1943 बनी फिल्म क़िस्मत के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है’ ने उन्हें अमर कर दिया. इस गीत से ग़ुस्साई तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी के आदेश दिए थे, जिसकी वजह से प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा था. उनके लिखे फ़िल्म जागृति (1954) के गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तानकी’ और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शकील बदायूंनी का लिखा फ़िल्म सन ऑफ़ इंडिया का गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’ बच्चों में बेहद लोकप्रिय है. कैफ़ी आज़मी के लिखे और मोहम्मद रफ़ी के गाये फ़िल्म हक़ीक़त के गीत ‘कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ को सुनकर आंखें नम हो जाती हैं और शहीदों के लिए दिल श्रद्धा से भर जाता है. फ़िल्म लीडर का शकील बदायूंनी का लिखा और मोहम्मद रफ़ी का गाया और नौशाद के संगीत से सजा गीत ‘अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’ बेहद लोकप्रिय हुआ. प्रेम धवन द्वारा रचित फ़िल्म हम हिन्दुस्तानी का गीत ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी’ आज भी इतना ही मीठा लगता है. उनका फ़िल्म क़ाबुली वाला का गीत भी रोम-रोम में देश प्रेम का जज़्बा भर देता है.
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान...
राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म का गीत भारत देश के गौरवशाली इतिहास का मनोहारी बखान करता है.
जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा
जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा...
इसी तरह गुलशन बावरा द्वारा रचित फ़िल्म उपकार का गीत देश के प्राकृतिक खनिजों के भंडारों और खेतीबाड़ी और जनमानस से जुड़ी भावनाओं को बख़ूबी प्रदर्शित करता है.
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती
मेरी देश की धरती
बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं
ग़म कोसों दूर हो जाता है
जब ख़ुशियों के कमल मुस्काते हैं...
इसके अलावा फ़िल्म अब दिल्ली दूर नहीं, अमन, अमर शहीद, अपना घर, अपना देश, अनोखा, आंखें, आदमी और इंसान, आंदोलन, आर्मी, इंसानियत, ऊंची हवेली, एक ही रास्ता, क्लर्क, क्रांति, कुंदन, गोल्ड मेडल, गंगा जमुना, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा मान रही बलिदान, गंवार, चंद्रशेखर आज़ाद, चलो सिपाही चलो, चार दिल चार रास्ते, छोटे बाबू, जय चित्तौ़ड, जय भारत, जल परी, जियो और जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, जीवन संग्राम, जुर्म और सज़ा, जौहर इन कश्मीर, जौहर महमूद इन गोवा, ठाकुर दिलेर सिंह, डाकू और महात्मा, तलाक़, तूफ़ान और दीया, दीदी, दीप जलता रहे, देशप्रेमी, धर्मपुत्र, धरती की गोद में, धूल का फूल, नई इमारत, नई मां, नवरंग, नया दौर, नया संसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्यासा, परदेस, पूरब और पश्चिम, प्रेम पुजारी, पैग़ाम, फ़रिश्ता और क़ातिल, अंगारे, फ़ौजी, बड़ा भाई, बंदिनी, बाज़ार, बालक, बापू की अमर कहानी, बैजू बावरा, भारत के शहीद, मदर इंडिया, माटी मेरे देश की, मां बाप, मासूम, मेरा देश मेरा धर्म, जीने दो, रानी रूपमति, लंबे हाथ, शहीद, आबरू, वीर छत्रसाल, दुर्गादास, शहीदे-आज़म भगत सिंह, समाज को बदल डालो, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, हम एक हैं, कर्मा, हिमालय से ऊंचा, नाम और बॉर्डर आदि फ़िल्मों के देश प्रेम के गीत भी लोगों में जोश भरते हैं. मगर अफ़सोस कि अमूमन ये गीत स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या फिर गांधी जयंती जैसे मौक़ों पर ही सुनने को मिलते हैं, ख़ासकर ऑल इंडिया रेडियो पर.
बहरहाल, यह हमारे देश की ख़ासियत है कि जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवय या इसी तरह के अन्य दिवस आते हैं तो रेडियो पर देश प्रेम के गीत सुनाई देने लगते हैं. बाक़ी दिनों में इन गीतों को सहेजकर रख दिया जाता है. शहीदों की याद और देश प्रेम को कुछ विशेष दिनों तक ही सीमित करके रख दिया गया है. इन्हीं ख़ास दिनों में शहीदों को याद करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. कवि जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी के शब्दों में यही कहा जा सकता है-
शहीदों की चिताओं लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा… 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)

Wednesday, July 13, 2022

यूरिक एसिड से कैसे निजात पाएं


फ़िरदौस ख़ान  
हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दर्द से परेशान है. किसी के पूरे जिस्म में दर्द है, किसी की पीठ में दर्द है, किसी के घुटनों में दर्द है और किसी के हाथ-पैरों में दर्द है. हालांकि दर्द की कई वजहें होती हैं. इनमें से एक वजह यूरिक एसिड भी है.  
दरअसल, यूरिक एसिड एक अपशिष्ट पदार्थ है, जो खाद्य पदार्थों के पाचन से पैदा होता है और इसमें प्यूरिन होता है. जब प्यूरिन टूटता है, तो उससे यूरिक एसिड बनता है. किडनी यूरिक एसिड को फ़िल्टर करके इसे पेशाब के ज़रिये जिस्म से बाहर निकाल देती है. जब कोई व्यक्ति अपने खाने में ज़्यादा मात्रा में प्यूरिक का इस्तेमाल करता है, तो उसका जिस्म यूरिक एसिड को उस तेज़ी से जिस्म से बाहर नहीं निकाल पाता. इस वजह से जिस्म में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है. ऐसी हालत में यूरिक एसिड ख़ून के ज़रिये पूरे जिस्म में फैलने लगता है और यूरिक एसिड के क्रिस्टल जोड़ों में जमा हो जाते हैं, जिससे जोड़ों में सूजन आ जाती है. इसकी वजह से गठिया भी हो जाता है. जिस्म में असहनीय दर्द होता है. इससे किडनी में पथरी भी हो जाती है. इसकी वजह से पेशाब संबंधी बीमारियां पैदा हो जाती हैं. मूत्राशय में असहनीय दर्द होता है और पेशाब में जलन होती है. पेशाब बार-बार आता है. यह यूरिक एसिड स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देता है.    
यूरिक एसिड से बचने के लिए अपने खान-पान पर ख़ास तवज्जो दें. दाल पकाते वक़्त उसमें से झाग निकाल दें. कोशिश करें कि दाल कम इस्तेमाल करें. बिना छिलकों वाली दालों का इस्तेमाल करना बेहतर है. रात के वक़्त दाल, चावल और दही आदि खाने से परहेज़ करें. हो सके तो फ़ाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें.  

जौ 
यूरिक एसिड से निजात पाने के लिए जौ का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें. जौ की ख़ासियत है कि यह यूरिक एसिड को सोख लेता है और उसे जिस्म से बाहर करने में कारगर है. इसलिए जौ को अपने रोज़मर्रा के खाने में ज़रूर शामिल करें. गर्मियों के मौसम में जौ का सत्तू पी सकते हैं, जौ का दलिया बना सकते हैं, जौ के आटे की रोटी बनाई जा सकती है.

ज़ीरा
यूरिक एसिड के मरीज़ों के लिए ज़ीरा भी बहुत फ़ायदेमंद है. ज़ीरे में आयरन, कैल्शियम, ज़िंक और फ़ॉस्फ़ोरस पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट उच्च मात्रा में मौजूद होता है, जो यूरिक एसिड की वजह से होने वाले जोड़ों के दर्द और सूजन को कम करता है. यह टॉक्सिंस को जिस्म से बाहर करने में भी मददगार है.

नींबू
नींबू में मौजूद साइट्रिक एसिड शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को बढ़ने से रोकता है.  

ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. 

#यूरिकएसिड

Saturday, July 9, 2022

ग़ुज़ारिश : ज़रूरतमंदों को गोश्त पहुंचाएं

 

ईद-उल-अज़हा का त्यौहार आ रहा है. जो लोग साहिबे-हैसियत हैं, वो बक़रीद पर क़्रुर्बानी करते हैं. तीन दिन तक एक ही घर में कई-कई क़ुर्बानियां होती हैं. इन घरों में गोश्त भी बहुत होता है. एक-दूसरे के घरों में क़ुर्बानी का गोश्त भेजा जाता है..जब गोश्त ज़्यादा हो जाता है, तो लोग गोश्त लेने से मना करने लगते हैं.
ऐसे भी बहुत से घर होते हैं, जहां क़ुर्बानी नहीं होती. ऐसे भी बहुत से घर होते हैं, जो त्यौहार के दिन भी गोश्त से महरूम रहते हैं..राहे-हक़ से जुड़े साथी गोश्त इकट्ठा करके ऐसे लोगों तक गोश्त पहुंचाते रहे हैं, जो ग़रीबी की वजह से गोश्त से महरूम रहते हैं.
आप सबसे ग़ुज़ारिश है कि आप भी क़ुर्बानी के गोश्त को उन लोगों तक पहुंचाएं, जो त्यौहार के दिन भी गोश्त से महरूम रहते हैं. आपकी ये कोशिश किसी के त्यौहार को ख़ुशनुमा बना सकती है.

Sunday, June 12, 2022

OIC



इन दिनों ख़बरों में OIC का ख़ूब ज़िक्र आ रहा है. OIC का मतलब है- ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन. इसमें 57 इस्लामिक मुल्क शामिल हैं. इनकी फ़ेहरिस्त पेश है-
1 Afghanistan 
2 Albania 
3 Algeria 
4 Azerbaijan 
5 Bahrain 
6 Bangladesh
7 Benin  
8 Brunei  
9 Burkina 
10 Cameroon 
11 Chad 
12 Comoros 
13 Djibouti 
14 Egypt 
15 Gabon 
16 Gambia 
17 Guinea 
18 Guinea-Bissau 
19 Guyana 
20 Indonesia 
21 Iran  
22 Iraq 
23 Ivory 
24 Jordan 
25 Kazakhstan 
26 Kuwait 
27 Kyrgyzstan 
28 Lebanon 
29 Libya  
30 Malaysia
31 Maldives 
32 Mali 
33 Mauritania
34 Morocco
35 Mozambique 
36 Niger 
37 Nigeria 
38 Oman Muscat 
39 Pakistan 
40 Palestine 
41 Qatar 
42 Saudi Arabia
43 Senegal 
44 Sierra Leone
45 Somalia 
46 Sudan 
47 Suriname 
48 Syria 
49 Tajikistan 
50 Togo 
51 Tunisia
52 Turkey 53
Turkmenistan 
54 Uganda 
55 United Arab Emirates 
56 Uzbekistan 
57 Yemen 
#OIC
#organization_of_islamic_cooperation
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Monday, April 11, 2022

ईश प्रीत की छलकन है यह पुस्तक


सूफ़ी-संतों पर आधारित पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ फ़िरदौस ख़ान की ईश प्रीत की छलकन है. ऋषि सत्ताओं की विस्मृत वाणी को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को कैसे संत व फ़क़ीर जीते हैं, उसी को पुनः स्मृति में लाने का प्रयास है यह पुस्तक.
जैसे श्रीमद्भगवद्गीता पुनः अर्जुन के बहाने संसार को मिल रहा है, जबकि योगेश्वर कहते हैं कि सबसे पहले यह ज्ञान सूर्य को दिया था, जो काल के खेल में विलुप्त हो गया था.
ऋषि सत्ताओं ने धर्म की जगह विशेष के समूह को जीवन जीने का तरीक़ा दिया और ऋषियों, सूफ़ी, संतों व फ़क़ीरों ने उस जीवन जीने के तरीक़ों के उद्देश्य को जिया अर्थात आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त होना, अर्थात उस प्रकाश को पाना है जिससे यह कायनात है. अखिल ब्रह्मांड है, भीड़ और समूह सीढ़ियां छोड़ नहीं पाती हैं, जिससे भेद बना रहता है, बसा रहता है. मंज़िल पानी थी, न कि सिर पर सीढ़ियां लादे घूमना था. फ़क़ीरों-संतों का जीवन चीख़-चीख़ कर घोषणा करता है- ढाई आखर प्रेम का, पढ़या सो पंडित होय.
पहुंचना प्रीत सागर में है. सारी की सारी नदियों का गंतब्य क्या है, समुद्र.

गंगा-जमुनी मेल क्या है, संस्कृति क्या है, चलें सागर की ओर, मिलकर. संगम पाकर और विशाल-विस्तृत होकर. विराट मिलन के पूर्व का मिलन उस महामिलन की मौज की मस्ती के स्वाद का पता दे देता है. इसका बड़ा अच्छा उदाहरण लेखिका व आलिमा फ़िरदौस ख़ान ने प्रस्तुत किया है. सूफ़ी हज़रत इब्राहिम बिन अदहम के जीवन से-
-कौन ?
- तेरा परिचित.
-क्या खोज रहे हो?
- ऊंट.
बकवास... इतने ऊपर हमारे महल में ऊंट कैसे आ सकता है? परिचित बोलते हैं कि जब तू राजमहल में मालिक को ढूंढ सकता है, तो यहां हमारा ऊंट क्यों नहीं आ सकता है?
अर्थात राजस में रहकर सात्विक से भी (त्रिगुण मयी माया) पार की ख़बर का नाटक करना ही है. आज के दौर में कितना प्रासंगिक है. राजस जीवन जीकर धर्म की व्याख्या करना, पतन की पराकाष्ठा ही है.
वहीं जब महल को पुनः सराय कहता है परिचित, तब बादशाह की आंख पूरी खुल जाती है. राजस आने जाने वाली फ़ानी बादशाहत छोड़कर फ़क़ीरी जीवन जीने लगते हैं.

और सूफ़ी, संत, फ़क़ीर ही असली बादशाह हैं. मालिक की गोद में बैठकर असली मौज लेते रामकृष्ण परमहंस भी दिखते हैं और माँ के आशीष से सिंचित कर्मयोगी शहनाई वादक बिस्मिल्लाह ख़ान साहेब भी क्या हज़रत इब्राहिम बिन अदहम की तरह फ़क़ीरी में बादशाह नहीं हैं.
चाहे कबीर हों, रसखान हों, दादू हों सभी उस नूर, उस रौशनी की चर्चा अपनी सधुक्कड़ी भाषा में कर रहे हैं. 
लेखिका फ़िरदौस ख़ान उस ईश्वरीय नूर को जी रही हैं और इस तरह ईश प्रीत की उस छलकन की पहली श्रृंखला है यह पुस्तक, जिसे ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह) ने प्रकाशित किया है.

शुभकामनाएं अपार!
नन्दलाल सिंह

लेखक का परिचय 
नन्दलाल सिंह लेखक एवं अनिभेता हैं. वह रंगमंच, हिन्दी फ़ीचर फ़िल्मों के लिए लेखन करते हैं. उनकी कहानियां, लेख, उपन्यास एवं गांधी दर्शन पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वह महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, बनारस में भी नाट्य विभाग में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे हैं. वह महात्मा गांधी के विचार एवं दर्शन पर कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देते हैं. 
संपर्क : गोरेगांव (पश्चिम), मुम्बई- 400104 (महाराष्ट्र)
ईमेल : sundharanandlal@gmail.com